
भारतीय समाज में जाति केवल सामाजिक पहचान नहीं, बल्कि आस्था, परंपरा और सत्ता विमर्श का भी केंद्र रही है। हाल के दिनों में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत का यह कथन कि भगवान परशुराम बढ़ई समाज से थे, एक नई बहस को जन्म देता है। यह कथन सीधे उस पारंपरिक मान्यता से टकराता है, जिसमें परशुराम को ब्राह्मणों का आदि पुरुष और वंशज माना जाता रहा है।
इतिहास और पुराणों में परशुराम को जमदग्नि ऋषि का पुत्र बताया गया है, जो ब्राह्मण परंपरा के प्रमुख स्तंभ रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि यदि परशुराम को किसी शिल्पकार या बढ़ई समाज से जोड़ा जाता है, तो स्वयं को उनका वंशज मानने वाले ब्राह्मण समाज की मान्यता का आधार क्या रह जाता है?
दरअसल, भारतीय समाज में लंबे समय से यह धारणा रही है कि जो भी व्यक्ति ज्ञान, तप, शौर्य या नैतिक श्रेष्ठता में आगे रहा, उसे ‘ब्राह्मणत्व’ का प्रतीक मान लिया गया। यह ब्राह्मणत्व जन्म से कम और कर्म से अधिक जुड़ा हुआ बताया जाता रहा है। इसी तर्क के आधार पर कई जातियों में जन्मे महापुरुषों को कालांतर में ब्राह्मण या श्रेष्ठ वर्ग की संज्ञा दी गई।
मोहन भागवत का बयान इसी कर्मप्रधान व्याख्या की ओर इशारा करता है, लेकिन आलोचक इसे इतिहास की पुनर्व्याख्या नहीं, बल्कि समकालीन सामाजिक संतुलन साधने का प्रयास मानते हैं। प्रश्न यह भी है कि क्या ऐसी व्याख्याएं सामाजिक समरसता को मजबूत करेंगी या सदियों से चली आ रही धार्मिक मान्यताओं को और उलझा देंगी।
अंततः परशुराम केवल किसी एक जाति या वर्ग के नहीं, बल्कि भारतीय सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक हैं। उन्हें किसी एक समाज तक सीमित करना, शायद उनके व्यापक ऐतिहासिक और दार्शनिक महत्व को संकुचित करना है। आज आवश्यकता इस बात की है कि इतिहास और परंपरा पर बहस हो, लेकिन वह तथ्यों, संवेदनशीलता और सामाजिक सौहार्द के साथ हो—न कि राजनीतिक सुविधा के आधार पर।




